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         ARTICLE WRITING COMPETITION - 2020 
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उराँव जनजातियों में " करम पर्व "

                      " संतोष तिग्गा जोबला "

         किसी भी जाति या समाज की पहचान उसकी धर्म, भाषा, संस्कृति, पर्व -त्योहार और उनकी लोक कथाओं से होती है| इस तरह हर जनजाति या समाज के अपने-अपने परम्परागत रीति-रिवाज एवं विधि-विधानों के अनुसार ही सभी पर्व-त्योहारों को मनाते हैं|
       उराँव जनजाति समाज में ‘करम पर्व’ महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है, जिसमें आस्था और विश्‍वास परिपूर्ण है|  यह अविरल गंगोत्री की धारा के समान प्रवाहित, युगों से गतिमान रीति-रिवाजों संस्कृति की लबालब भरी गागरें हैं| जिसकी एक-एक बूँद जीवन की प्यास बुझाती है| उराँव जनजाति संस्कृति का मूल और विस्तार उनकी प्रथाओं  व कथाओं में देख सकते हैं। सुनने व बाहर से देखने से किसी भी जनजातियों की कथाएँ व प्रथाएँ विचित्र और आश्‍चर्य लगता है, किन्तु गहराई व नजदीक से देखने पर ये लोक कथाएँ व प्रथाएँ उनके जीवन के अनेक महत्वपूर्ण रहस्यों, संस्कारों, परम्पराओं और व्यवहारों को प्रतिबिम्बित करती हैं| उराँव जनजातियों  में विश्‍वास, आस्था और लोक कथा में  देवी-देवताओं का कोई निश्‍चत स्वरूप नहीं होता है। ये प्रकृति पूजारी हैं और प्राकृति के इस गूढ़ रहस्यों को समझने के लिए मानव ने अपनी कल्पना और तर्क शक्ति से जो प्रतिबिम्ब का  संकेत चुने वही ‘प्रकृति’ है| ‘प्रकृति पुत्र’ उराँव जनजाति  सबसे पहले पेड़-पौधों में अपने देवी-देवताओं की कल्पना की तब से वह पूरे पेड़-पौधे ही आस्था का प्रतीक बन गया, वृक्ष पूजा उसी  का प्रतीक प्रमाण है । ये केवल प्रतीक मात्र ही नहीं इससे पूरी उराँव जनजाति का संस्कृति व  पहचान प्रदर्शित होती है। ये रीति-रिवाज, विश्‍वास और आस्था का प्रतीक मानव के सच्चे अनुभव की कसौटी  है| उसी आस्था और विश्‍वास से मिलने वाला परिणाम मानव जीवन को आध्यात्मिक सुख-शांति देता है और इसी आस्था का एक  महत्वपूर्ण पर्व है "करम पर्व", यह पर्व शुरू से ही संपूर्ण उराँव जनजाति समुदाय में भादो माह के  एकादशी में मनाया जाता है। इसे राजी करम पर्व के नाम से भी जाना जाता है। परंतु झारखंड के गुमला और लातेहार (भितर बरवे ) , छत्तीसगढ़ के जसपुर और सरगुजा (बहर बरवे )जिलों में अलग-अलग नामों व समय में भी मनाया जाता है । जैस -  करम, राजी करम, ईंद करम, जितिया करम, दसई करम और सोहराई करम आदि नामों से प्रचलित है । करम पर्व को अलग-अलग नामों व समय में मनाया तो जाता है परंतु  इनकी ने-ग पूजा का विधि -विधान एक जैसा ही होता है ।
       पवित्र करम पर्व ऐसे समय में मनाया जाता है जिस समय पृथ्वी फसलों से हरियाली व सभी खेतों में फसल  लहलहा रहा होता है।  संपूर्ण  पृथवी के जमीन , जंगल , पहाड़ - पर्वत हरा-भरा दिखाई देता है । नदी, नालों , झरनों से पानी बहने की अवाजों से गूंजती है । इस समय सभी पशु-पक्षी खुशी से खेतों, जंगलों, और पहाड़-पर्वतों में चहकती फुदकती रहती है । खेत के मेढ़ों नदी, नालो, झरनों के किनारे काँसी फूल खिल रहा होता है, और ऐसा लगता मानो बड़े-बड़े श्वेत चादरों को फैला दिया गया है । इस तरह प्रकृतिक सौंदार्य को देख कर लगता है पूरा प्रकृति "करमदेव" व करम पर्व की स्वगत में सज-धज कर तैयार है। साथ ही उराँव समुदाय के चेड़ा( नौजवान) युवक -युवकती भी बगुला पंखों का कइलगा  बना कर अपने-अपने पगड़ी तथा खोपा (बालों) में खोंसने की तैयारी में जुटे हैं । करम गीत  गाने व वाद्य यंत्रों को बजाने का अभ्यास चल रहा है। इससे खेतों , जंगलों , पर्वतों में करम गीतों से गूँज रहा है । बजारों में नया-नया मांदर तथा अन्य वाद्य  यंत्र आने लगा है । लोग अपने - अपने पुराने वाद्य यंत्र को मरामत कराने घाँसी के घर पहुँचने लगे हैं। रात को अपने गाँव-घरों में करम गीत और नाच गान की मधुर स्वर सुनाई देती है। ये एक ऐसा समय है जो बीमार व्यक्ति भी करम पर्व की उत्साह से ठीक हो जाता है। नदी - नालों , झरनों मे पानी बहने से नाना प्रकार की अवाजे निकलती है  और ये अवाजे गाने बजाने जैसा सुनाई देता है । जिससे ऐसा अनुभव होता संपूर्ण पृथ्वी उत्सव मना रहा हो , पशु - पक्षियों के चहकने - रोने से मधुर ध्वनि सुनाई देता है, इसी मधुर ध्वनि के साथ लोग अपनी मधुर स्वर को स्वर से मिलाते हुए गीत गाने लगते हैं । इस लिए खेतों , जंगलों - पहाड़ों में करम गीतों के साथ  मुरली व बांसुरी की धुन सुनाई देती है , पत्तो से बनी  छातों / छतरी और गुंगू भी काँसी फूल तथा बगुला के पंखों से सजा हुआ रहता है  जो अति सुन्दर व मन मोहक दिखाई देता है , इसी पर उराँव समुदाय में प्रचलित गीत गायी जाती है जो इस प्रकार है :-
             १.
ओ. एका जो-ख़स कड़ारू ख़ापदस  - २
       कुल्ला नू बइकला पेंच्छो रे ,
       कुल्ला नू बइकला पेंच्छो ।
      चेड़ा जो-ख़स कड़ारू ख़ापदस - २
       कुल्ला नू बइकला पेंच्छो रे ,
       कुल्ला नू बइकला पेंच्छो ।
कि. चिओस बाच - बाच हेद्दे - हेद्दे मनेन -२
      धिरजा ननय पेल्लो बअदस रे ,
     धिरजा ननय पेल्लो बअदस ।।
            २.
ओ. नीन भइया रे कड़ारू ख़ापदय
       कुल्ला मइयां बइकला पेंच्छे रे
       कड़ेमा नू मुरली र-ई , रे -२
कि. कड़ेमा ता मुरलीन उरआ से भइया रे
      पेल्लो निंग्हय बोंगते बारओ , रे -

      वैसे उराँव समुदाय के गाँव-घरों में सालों भर नाच - गान चलते रहता है , परंतु करम पर्व के अवसर पर नाच-गान का उत्साह अलग ही देखने को मिलता है। करम पर्व पहुँचने से दस  दिन पहले कुवांरी लड़कियां गोला व धुमकुड़िया घरों में जवा जमाती है । जवा में विभिन्न प्रकार के बीजों में मकई, जौ, धान, गेहूँ, गोदली, उरद, कुरथी, गंगई, मूँग आदि रहता है , जवा में नौ दिनों तक हल्दी पानी का छिड़काव किया जाता है। जवा जमाने वाली लड़कियां जवा तैयार होने तक यानि करम पर्व तक हल्दी व नमक नहीं खाती है ,जवा जमाते समय निम्न गीत को गाया जाता है:- 

ओ.  एका पेल्लो जवा जमा बाःचा - २
       हरदी पानी लगा बाचा रे - २
कि. चेंड़ा पेल्लो जवा जमा बाःचा - २
        हरदी पानी लगा बा:चा रे - २

        जवा जमाने के बाद पेल्लो कोटवार (लीडर) लड़कियों को लेकर पूरे गाँव से चावल जमा करती हैं| उस चावल से करम पूजा के लिए हड़िया बनाया है| ये तीन प्रकार के होते हैं|
१. फूल तोड़ने और करम डाली काटने के लिए,
२. करम कथा सुनने के लिए, और
३. करम डाली के विसर्जन के लिए।
       अब करम की तैयारी में सभी लग जाते हैं| लड़कियों को नये-नये शिंगार-पतर व गहने और कपड़े चाहिये|  लड़कों को नये कपड़े के साथ वाद्य यंत्र चाहिये होता है। सभी अपने परम्पारिक रीति-रिवाज से तैयारी करते हैं| जो इस गीत में देखे सकते हैं :-
                 १
ओ. राजियार गे राजी करम बरचा
       हय एंगड़ी डाउड़ा गे चींख़ी रे
       हय एंगड़ी किचरी गे चींख़ी ।
कि. बरना पेठ बरय ची बहिन गो
       रिंगी-चिंगही डाउड़ा दिम ख़ेंदोन रे
      बन्ना-चुन्ना किचरी दिम ख़ेंदोन ।।
                  २
ओ. तोंय तो दादा मांदर किने जाबे रे
      मोंय तो दादा बेरा पींधे जाबू  रे
      मोंय तो दादा बेरा पींधे जाबू ।
कि. मांदर तोरा फूटी गेला दादा
      बेरा हमर कैसे फूटी  रे
      बेरा हमर कैसे फूटी ।।

       करम पर्व के एक दिन पूर्व " डंड्डा कट्टना " एक पवित्र ने-ग यानि पूजा की विधि संपंन की जाती है। इस दिन सभी के घरों में अच्छा-अच्छा खान-पान , व्यंजन व करम रोटी-पकवान अादि बनाया जाता है। इसी दिन शादी करने वाले ( जिसका रिस्ता तय हुआ हों) लड़के पक्ष के लड़की के घर यानी लड़की के लिए करम डाउड़ा (डलिया ) पहुँचाते हैं। करम डाउड़ा में लड़की के लिए सभी प्रकार के शिंगार - पत्तर व साड़ी और करम ने-ग संबंधित पूजा का समान रहता है ।
         भादो एकादशी के दिन सुबह से ही कुँवारी बच्चियां करम उपवास करती हैं| करम उपवास करने वालों को करमाईत कहा जाता है। पूरे दिन खुशियों से भरे  घर-आंगन और  अपने-अपने गहनों की साफ-सफाई करती हैं| करम उपवास बच्चियों, लड़कियों से लेकर नवविवाहित युवतियाँ भी करती हैं|  करम उपवास कर धरमेश "करमदेव" से प्रार्थना करती है कि पृथ्वी पर रहने तक प्रकृति संग जीवन-यापन करने में हमारी सहायता करें, हमारा जीवन खुशहाल हो, हमारी शादी अच्छे घरें में अच्छे जीवन साथी से हो, शादी के बाद "करमदेव" हमें बाल-बच्चे भी दें, यही विश्वास और आस्था से करम डाउड़ा में खीरा रखा जाता है। करम डाउड़ा में खीरा को रखना बालक बच्चे का प्रतीक है । इस संबंध में एक प्रचलित गीत गाई जाती है :-

ओ. करम डाउड़ा नूँ पेल्लो कोय
      बाबू निंग्हय चींखा लगी रे
      बाबू निंग्हय चींखा लगी।
कि. जोंखासिम तम्बस, पेल्लो दिम तंगियो
       बाबू निंग्हय चींखा लगी रे
       बाबू निंग्हय चींखा लगी।

       इस दिन सभी कोई करम पूजा की तैयारी मे ही जुटे रहते हैं।  शाम ढलते ही गाँव के सभी लड़के-लड़ियाँ सज-धज कर तैयार अपने-अपने मांदर, ठेचका, डमुआ(नगाड़ा), घंट झांझ आदि लेकर अखड़ा पहुँच जाते हैं। सभी कोई इकठा होने के पश्चात नाचते-गाते, बजाते-झूमते, गाजे-बाजे के साथ करम डाली काटने करम वृक्ष की ओर प्रस्थान करते हैं । करम वृक्ष  के थोड़ी दूर में रूक कर सभी नाचते रहते हैं, इस समय करमाईत लोग नयगस (पहान) के साथ करम डाली काटने जाते हैं  नयगस और करमाईत करम वृक्ष के पास पहुँच कर "करमदेव" से प्रार्थना करते हैं कि 'हे "करमदेव" आज हम सभी एक वर्ष बाद पुन: आपकी पूजा-अर्चना कर करम पर्व मनायेंगे, हम सभी करम डाली के रूप में "करमदेव" को आदर-महिमा के साथ लेने आए हैं। कह कर करम वृक्ष को मोंजरा (प्राणाम) करते हैं नयगस करम वृक्ष  में लोटा से पानी ढाल कर सफेद धागा को तीन बार करम वृक्ष में बांधता है सफेद धागा बांधने का अर्थ "करमदेव" को करम कपड़ा पहनाया जाता है। "करमदेव" को तेल लगाकर, सिंदूर का टीका लगा कर करम वृक्ष में अरवा चावल छीटते हैं फिर बलुआ लेकर वृक्ष में चढ़ कर नयगस तीन डाली को एक-एक बार में काट कर देते हैं, उसे करमाईत झोकती है। करम डाली को जमीन में सटने नहीं दिया जाता है, करमाईत करम डाली को हाथ में लेकर करम वृक्ष  को तीन चक्र लगाती हैं इसके बाद वापस आते है इस समय सभी कोई "करमदेव" को आते देख सिर झुकाकर प्राणाम करते है फिर झूमते-नाचते अखड़ा की ओर लौटते है। इस समय निम्न गीतों को गाते है :-

ओ. करम करम कहाले गे सवांरो -२
      करम कर दिन कैसै आवय रे
      करम कर दिन कैसे आवय ।
कि. आसाढ़-सावन चली गेला सवांरो -२
      भादो एकादसी करम आवय रे
      भादो एकादसी करम आवय ।

      अखड़ा पहुँचकर नाचते हुए तीन भवंरी (राऊँड) लगाते हैं फिर बीच में करम डाली के साथ खडे़ हो जाते हैं सबसे पहले नयगनी ( पहान की पत्नी ) उन सभी का पैर धोती है, फिर अखड़ा के बीच में गोबर से लीपती है इसी लिपा हुआ स्थान में पहान ने-ग के अनुसार गढ़ा खोदकर करम डाली को गाड़ते हैं करम गाड़ने के बाद फूल-फल आदि को " करम देव " के लिए चड़हाया जाता है। करम गाड़ने की विधि संपन्न होने के बाद गाँव के सभी लोग "करमदेव" को सिर झुकाकर प्राणाम करते है, सभी करमाईत बच्चियां अपने-अपने घर चली जाती है, फिर  करमाईत बच्चियों को पीठ में बेदरा कर या उठा कर अखड़ा लाया जाता है उनके पीछे-पीछे करमाईत की मां या भाभी करम डाउडा़ सिर मे उठा कर लाती है  और अखड़ा को तीन-तीन भवंरी घुमने के पश्चात खड़े करते है करमाईत बच्चियां अपने-अपने लोटा से तीन-तीन बार करम डाली में पानी डालती है सभी अपने-अपने  करम ड़ाउड़ा को करम के चारों ओर रख कर वहीं सभी बैठ जाते है बिना उपवास वाले थोड़ी दूर मे बैठते हैं अब नयगनी की अगवाई में "करमदेव" की पूजा-अर्चना संपंन किया जाता है पूजा संपंन होने के पश्चात नयगस या कोई भी जानकार व्यक्तियों के द्वारा "करम लोक" कथा (कहानी) सुनाई जाती है कथा प्रवाचक बीच-बीच में महादेव व परवती का नाम लेते हैं इस समय सभी लोग करम डाली में अरवा चावल को छीटते हैं करम कथा सुनने के बाद करमाईत बच्चियां करम डाउड़ा में रखे करम रोटी-पकवान एक दूसरे को खिला कर उपवास तोड़ती है, फिर सभी लोग एक साथ नाचने-गाने लग जाते हैं इस प्रकार नाच-गान रात भर चलता है परंतु रात जैसे बितता जाता है वैसे ही नाच-गान का ताल व राग मधुर होता जाता है अलग-अलग रागों, गीतों से अखड़ा गूँजता है किसी -किसी गाँव में करम कथा दूसरे दिन सुबह सुनाई जाती है। दूसरे दिन सुबह जवा फूलों को अखड़ा में मौजूद सभी लोगो के खोपा (बालों) व पगड़ी में खोंसते हैं साथ ही जवा दे कर करम पर्व की बधाई एवं शुभकामनाएँ एक दूसरे को देते हैं इस समय निम्न गीतों को गाते है:-

ओ. ईदिनंता जवा पूँपन
      ओंदा दादा झोकओय का मला , रे - २
कि. मया लगो झोकओय
      मल मया लगो मला झोकओय
      ओंदा दादा झोकओय का मला , रे - 

      इसी दिन सुबह सभी लोग "डंड्डा कटिका कीरो डाड़न " यानी भेलवा पत्ता व तींद डाली को अपने-अपने खेतों में गाड़ते हैं उराँव समाज में यह विश्वास है कि इससे खेतों में धरमेश का बराकत होता है फसल का पैदवार अच्छा होता है  साथ ही  बुरी नजरों से भी बचाता है। लोहाड़ी (दोपहर) नयगस अखड़ा आ कर "करमदेव"का  अंतिम पूजा-अर्चना करता है उसके बाद करम डाली को अखड़ा से उखाड़ कर करमाईत को सौपता है करमाईत के द्वारा गाँव के सभी घरों में करम डाली घुमाया जाता है सभी घर की मुख्य महिलाएं करम डाली को पानी और सिंदूर देती है  इस समय निम्न गीतों को गाते हैं :-

ओ.  पानी दे गे आयो, पानी दे हो बाबा
      बड़ी दूर से पियासे आवय रे
      बड़ी दूर से पियासे आवय ।
कि. आरे हूँ गँगा, पारे हूँ यमुना
       सायो बीचे पियासे आवय ।।

       सभी के घरों से रोटी व पकवान आदि भी दिया जाता है किसी-किसी घर से पैसा भी दिया जाता है।  गाँव के सभी घरों में करम डाली का दर्शन हो जाने के बाद नदी में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। जाते समय निम्न गीत गाते हैं :-

ओ. काईल तो आले करम सोने-मोने -२
     आइज जाबे करम गंगा नहाय ले
     करम जमुना नहाय ले ।

      नदी में पहुँचकर पूरे गाजे-बाजे के साथ उसे विधि-विधानुसार अंतिम सिन्दूर-टीका देकर तीनों डालियों को एक साथ बहा दिया जाता है| फिर थोड़ी देर बाद बड़ी धूम-धाम से नाचते हुए गाते हैं -

ओ. कहाँ केर छोंड़ा-छोंड़ी
     नदी केर बाला में खेलय ।
कि. नदी केर बाला सिराय गेल रे
      खिधोर पानी में खेलय रे
      खिधोर पानी में खेलय ।

      करम डाली को नदी में विसर्जित करने से पूर्व करम डाली को सभी सिर झुकाकर प्राणाम करते हुए प्रार्थना करते है कि हे " करमदेव " हमारे सभी प्रकार की बीमारी व पापों को ले कर चले जाएँ और हम सभी के लिए खुशहाली दें।  करम डाली विसर्जन विधि संपंन्न होने के बाद सभी लड़के-लड़कियाँ हाथ-पैर धोकर एक स्थान पर बैठ जाते हैं| करम घुमाने के दौरान जितने पैसे मिले उसका हिसाब कर बता दिया जाता है और सभी रोटियों  को आपस में मिल-बाँटकर खाते है| करम विसर्जन के लिए एक या दो अलग से हड़िया बनाया जाता है| उसको भी नदी की ओर ले जाकर पीते हैं और करम विसर्जन के बाद उदास मन से घर लौटते हुए गीत गाते हैं

             १
ओ. ई उल्ला रअचकी करम
       सोने - मोने करम - २
कि. अक्कु गा कालोय करम
      गंगा - समुदर करम
      जमुना - समुदर  करम ।
ओ. ई उल्ला रअचकी करम
      जोख़र मजही करम
      पेल्लर मजही करम ,
कि. अक्कु गा कादी करम
      रोगेन होअर करम
      पापेन होअर करम।।
          २
ओ. एँव उल्ला रहचकी करम
       जोंखयन खरा रीझा बाचकी रे
      पेल्लयन खरा रीझाख् बाचकी।
कि. आक्कु करम चाली किरकी खने
      जोंखयन टुवारो नंजकी रे
      पेल्लयन टपारो नंजकी। 

      इस प्रकार ससंमान करम डाली को विसर्जित कर सभी कोई नदी से वापस गाँव  लौट जाते हैं । इस तरह "करम पर्व" हर्षोउलास के साथ संपंन्न होता हैं । 

By - Santosh Tigga
Gumla, Ranchi